Thursday, February 11, 2010

 

इस कविता को नाम दो

तुम ना ना करके हामी भरना चाहती हो
प्रिये तुम मुझे कैसा प्यार करना चाहती हो
और इधर मैं हु दिन रात तुम्हे सोचता हू
रातो में खुद को कचोटता हूँ
सुबह उठूँ मंदिर दिखे तो लगे मेरी प्रार्थनाये तुम हो
कोई कहे ईश्वर भी है तो लगे मेरी उपासनाए तुम हो
मौसम फूल बहार देखू तो लगे मेरी अवाधार्नाये तुम हो
शाम ढले तुम्हारा रूप हावी होता ह मुझपर तो लगे मेरी वासनाये तुम हो
मगर तुम सुन लो यूं ही मत सह लेना
शपथ है तुमे कह देना
कही संकोचवश तुम मुझसे बतियाती रहो
मैं मर्यादाएं अपनी तोड़ता रहू तुम नजरों से मुझको गिराती रहो


Comments:
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Kafi srahniye hai khashker ye lines..सुबह उठूँ मंदिर दिखे तो लगे मेरी प्रार्थनाये तुम हो
कोई कहे ईश्वर भी है तो लगे मेरी उपासनाए तुम हो
lekin esh line ka bhav samjh nahi paya ki aapka esara kish taraf hai.......कही संकोचवश तुम मुझसे बतियाती रहो
मैं मर्यादाएं अपनी तोड़ता रहू तुम नजरों से मुझको गिराती रहो
Kindly help me out.
 
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